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संघर्ष

हंस कर कट जातें है जीवन लाखों के फिर भी सुखी नहीं होते है लोग बनावट की हंसी के पीछे लाखो षडियंत्र लाखो लोभ कब वो दिन आएगा जब हम भी जीवन के मायने समझ पाएंगे किसी का दुश्मन यहाँ पैसा है तो किसी का गरीबी का रोग || अजीब बनावट है संसार के इन नियम नातों की समझने के लिए न जरुरत किताब न बातों की | जितना भी जो भी सीखेगा अनुभव से ही सीख पायेगा जिंदगी ऐसी धुप है जिससे बचने के लिए न जरुरत है ओढ़नी न छातों की || सिफारिश भी कहां तक ले जाएगी सोच लें मेहनत से कमाई एक अदनी सी चवन्नी को भी दबोच ले | जो सुख कर्म का पानी पीने में है वो उधारी का शरबत क्या दे पायेगा आलस के शैतान को अब तो पुरुषार्थ  के नाखूनों से नोच ले || जला अंदर के दैत्य को जगा  एक नयी आंधी मन में जीवन में विश्वास की लौ को थामे रखना चाहे जितनी जलन हो तन में| फिर देख कैसे सफलता का एहसास तेरे कदम चूमता रह जायेगा हर किसी को सुख प्राप्त नहीं होता संघर्ष का जीवन में || धन्यवाद् 

लो बदला

यह कविता मैंने  १५ फरवरी २०१९ को पुलवामा में हुए कायराना हमले के बाद लिखी थी | इस कविता को लिखते वक्त मेरी आखों में अश्रु थे जिस कारण इस कविता में सुंदरता अथवा रस का आभाव हो सकता है | यह कविता मैंने पूर्णतः भावनाओ से प्रभावित होकर लिखी थी | इतनी गमगीन हूँ  कि कुछ कह नहीं पा रही हूँ इस आराम की जिंदगी में रह नहीं पा रही हूँ | कोई इतना दयालु है कि मेरे चंद खुशनुमा पलों के खातिर मिट गया अपनी यह कृतघ्नता मै सह नहीं पा रही हूँ || हद तो तब हो गयी जब उसने आह तक न कि खुद को मटाने में ख़ुशी ख़ुशी कुर्बान हो गया वो हमको बचाने में| हम कहाँ इस महानता के लायक थे साहब हम तो वो है जो बस लड़ने की वजह ढूंढ़ते थे हर ज़माने में || शायद दशकों बाद आज हमे अपनी एकता का एहसास है तुम्हारा जीवन तो अतुलनीय था ही तुम्हारा बलिदान भी ख़ास है| यदि आज भी तुम्हारा एहसान न चुका पाए हम तो हमारा आक्रोश, क्रोध और जीवन सब बकवास है || आज चमक तुम्हारी इतनी है कि तुमसे नजरें नहीं मिला पा रही हूँ और मै तुम्हारी चरणों की धूल बराबर भी नहीं ये सोचकर अपनी ही नज़रों में गिरती जा रही हूँ | बस अब बहुत हुआ

एक आग का दरिया है और तैर के जाना है

यह कविता मैंने तब लिखी थी जब मेरा एक अहम् परीक्षा में चयन नहीं हुआ था | तब के अवसादमय  हालात  में यह कविता लिखी गई है | आँखे खोलते ही संसार देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं रोते हुए हस्ते हुए क्या क्या कह जाते हैं जब खुद ही नासमझ है तो कठिन दूसरों को समझाना है जीवन एक आग का दरिया है और तैर के जाना है दिल को भी न पता हो जब ,कि क्या कह जायेंगे कदम आगे बढ़ेंगे या दौड़ में पीछे रह जायेंगे सफलता असफलता से भी कठिन खुद को अपना भविष्य बतलाना है संसार एक आग का दरिया है और तैर कि जाना है जब समझ आएगा तो सोचेंगे आगे क्या करना है जी भर के जीना है या परिणाम से डरना है इतनी समझ होने तक मन को भी तो समझाना है मंजिल आग का दरिया है और तैर के जाना है आज सोचा दूध का दूध और पानी का पानी करूँ चुपचाप यूँ  हीं बैठी रहूं  या सत्य के लिए लड़ूँ क्या कौन ए जिंदगी मेरा तो तौर पुराना है सत्य आग का दरिया है और तैर के जाना है प्रेम के बस तीन द्वार बाकि सब खुद से दूर ले जायेंगे प्रभु पुस्तक और परिवार के बल पर ही हम खुद को पहचान पाएंगे सुख खोज लो जीवन में वार्ना क्या लाए थे क्या ले

संसार

यह कविता  लिखी गयी थी ९ दिसंबर २०१६ में जब मेरा १०वी के प्री बोर्ड  परीक्षा में एक परीक्षा बहुत ख़राब हुई थी | उस अवसादमय परिस्तिथि यह कविता लिखी थी | आग में तपकर पीला सोना होता है जिंदगी में जो लिखा है वही होना होता है| हर कोई नहीं पा सकता है हर ख़ुशी हर किसी को कई बार तो जिंदगी में रोना होता है || न जाने क्या ये कर्म सिखाते है हमे न जाने क्यों ये प्यार भरी बातें खा जाते है हमे | न जाने कब तक भाग्य का कोप सहना होगा न जाने क्यों असफलता के बुरे ख्याल खा जाते है हमे || एक आईना दिखला दो कोई सत्य का हटा दो आवरण इस जटिल दुनिया पर पड़े असत्य का| कुछ अच्छा होगा, ये ख्वाब छोड़ दो यह खेल नहीं मेहनत का पर हमारे अपने कृत्यों का || आज फिर उदास मन को टोकती हूँ मेरी नहीं है गलती , न जाने किस किस को कोसती हूँ| पर ये हमेशा क्यों याद रखना पड़ता है कि हर वक्त अकेले मै भी न जाने क्या सोचती हूँ||  अब नाम से भी डर लगता है असफलता के न जाने कितनी बार गिरी हूँ डगमगा के | हर बार उठने को सहारा क्यों खोजती हूँ इक बार तो कोशिश करूँ जोर अपना आजमाने के || अब जिंदगी सिखाती है तो खता क्या हमारी

हौसला

यह कविता मैंने २० दिसंबर २०१६ में अपने प्री बोर्ड ख़त्म होने के बाद लिखी थी | आज हरतरफ ही तो चुनौतियों का दौर है| है मन में बात अलग सी कुछ जुबान पर कुछ और है | हैं आँधियों में हम फंसे मुसीबतों का जोर हैं| हर तरफ देखो यहाँ दुखों का ही तो शोर है|| न जाने क्या मै सोचता पर करता नहीं हूँ कुछ | चुनौतियों को देखकर वीर तू न जाना रुक | ये ही है वो चुनौतियाँ जो तुझको देंगी परख | इन चुनौतियों का तू सामना कराएगा मन में ये विश्वास रख || क्या रोकेंगे पहाड़ ये है सिंह की दहाड़ ये| न आज रुक सकेगा तू न आज झुक सकेगा तू | बढ़ता चल तू धार सा कृपाण के एक वार सा | न हौसला तू खुद का  खो रख हौसला हज़ार सा || आज डट के कर तू सामना इस विश्व के प्रहार का | चाहे हो वार एक का या वार हो हज़ार का | न हौसला तू अपना खो रख हौसला पहाड़ सा | कर खुद को तू इतना बुलंद लगे सिंह की दहाड़ सा|| चल अब तुझे रुकना नहीं दिखा दे विश्वा को तू ये | हर बार जो है हारता वो हारेगा नहीं फिर से| करना क्या है तुझे एक बार तू ये सोच ले | बस आँख निशाने पर तू रख और परिणाम खुद तू देख ले | न हारेगा तू अब कहीं

डॉ सुब्रमण्यम चंद्रशेखर

यह कविता है एक महान भारतीय अमरीकी वैज्ञानिक डॉ सुब्रमण्यम चद्रशेखर के बारे में | चंद्रशेखर की असीमित सोच ने उन्हें एक ऐसे सिद्धांत की खोज करने पर मजबूर कर दिया जिसका पहले तो बहुत विरोध हुआ मगर फिर उसी सिद्धांत के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला| उस सिद्धांत का नाम है चंद्रशेखर की सिमा और उसी सिद्धांत की पुष्टि में आए  रोड़ों  के विषय में है यह कविता | १९३० की एक सुबह निराली थी एक युवा भारतीय वैज्ञानिक के मन में अजब बेखयाली थी आइंस्टीन  के सिधान्तो को झुठलाने चला था जो अपनी प्रतिभा का लोहा दुनिया को मनवाने चला था वो तारों के भी अंदर आसानी से झांक रहा था वो १९ वर्षीय वैज्ञानिक अपने गुणों को भांप रहा था || आजाद खयालो के ब्राह्मण परिवार का चंद्र था जो छोटी सोच के बड़े अंग्रेज़ो के बीच फास गया था वो  परदेसी समझ हर किसी ने उसका तिरस्कार किया  उसके ख्यालों को भी अवसादों ने घेर लिया मगर ईश्वर के सहारे म्हणत से उसने काम किया  और एक दिन एडिंग्टन ने उसकी प्रतिभा को पहचान लिया॥  एडिंग्टन अपने कुशल कार्य के लिए जग द्वारा माना था  चंद्रा को भी अलग आयाम पर जाना था

मै हिंदी हूँ

आज सिर्फ अस्तित्व है स्वामित्व था जिसका कल  तक आज सिर्फ भाषा है अभिलाषा थी जिसकी कल तक आज सिर्फ कलम है दिल था जिसका कल तक आज सिर्फ संघर्ष है शिखर था  जिसका कल तक || कभी किसी का गर्व आज गले से निकलने को तरसती है कभी सहूलियत संसार की बनी जो आज कठिनाई बनने से डरती है कभी की हरदिलजान को आज जान तक का खतरा है कभी के घनघोर संघर्ष को आज अभिमान का खतरा है|| अब तो जन मन से उसका मान भी जा रहा है लगता है की कहीं हमारा स्वाभिमान भी जा रहा है दूर नहीं वो दिन जब साहरा थामकर खड़े हुए जो  उसी को आँख दिखाएंगे ऐसा एक भी दिन हम हिंदी प्रेमी तो न सेह पाएंगे || अब यह अस्मिता नहीं अस्तित्व का सवाल है क्या कोई बचाएगा उसे या वो भविष्य का डूबता ख्याल है क्यों हम दिखावे के रंग में इतने रंग गए कि आज हमारी मां ही बेहाल है|| पहले शब्द से लेकर अंतिम वाणी का यही सहारा था वो भी एक दौर था जब सारा जमाना हमारा था ऐ केवट अब इस नाव को मझदार में न छोड़ यूँ हीं पछतावे के इस समंदर का एक तू ही किनारा था ॥ सभी पाठकगणो को हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ॥

गुरु - ईश्वर की एक अद्भुद रचना

आकाश सा अबाध्य है जो   ईश्वर तुल्य आराध्य  है जो   सर्व गुणों में साध्य है जो   संसार संग वैराग्य है जो   गुरु सिवा और कौन है वो? न राह में आगे बढ़ाए  न राह को आसान बनाए  राह में रह कर भी वह तो पथिक को राह पार कराए   गुरु सिवा और कौन है वो? गम से दुःख तक की दुर्गम सीढ़ी भी आसान है उनकी सहायता से आगे बढ़ी हर पीढ़ी में वो महान है उनके बिना संसार बिना प्रज्ञा  का है अज्ञान है  उनके बिना जग जीवितों में जीवन का शमशान है गुरु सिवा और कौन है वो ? उनका ज्ञान हमारा साया है उनके तेज में हमारा यश समाया है उनके संघर्ष का फल हमने पाया है उनकी दी  चंद बूंदों से हमारा ज्ञान का समंदर गहराया है गुरु सिवा और कौन है वो? गुरु सिवा और कौन है वो?

जीवन- एक संघर्ष

हर हालात से जूझता है इंसा हर मुश्किल मे टूटता है इंसा , हर किसी से रूठता है इंसा फिर भी जीवन मे दुख कहाँ? हर पल घुट-घुटकर जीता है आँसुओं को मीठा शर्बत समझ पीता है , हर संघर्ष ने उसके विश्वास को घसीटा है फिर भी हर कठिनाई मे उसने सीखा है ।। कभी हार न माने , वो सिपाही है सदा चलने वाली यह जीवन की लड़ाई है , इससे लड़ने मे जग हसाई है पर हार मान बैठने मे कौनसी कमाई है।। क्यों न जीवन को नये तरीके से जगाये हर प्रहर को नये सलीके से मनाये। तो उठो ऐ इंसा संघर्ष मे भी रस है वो कौन है जिसके जीवन मे न दुख न कशमकश है।। कभी जहर से जीवन मे शक्कर तो घोलो सूरज निकलने से कुछ नही होता जरा आँखे तो खोलो। खुशियाँ आएंगी  तुम्हारे द्वार  भी कभी मुस्कुराकर दरवाजा तो खोलो ।। ।।।।  आशा करते हैं कि पाठकगण को पसंद आएगी । आपके सुझावों का यह नवजात कवियित्री हृदय से स्वागत करती है ।।।। धन्यवाद

मे.धा.वी. के कलम से ......

मेधा   के मृदुल मृदंग धारणा यह किसके संग|| वीभत्स वीरान मन में विश्वास जगमगाए वंदनवार सफलता की हर बार मुझे आजमाएं|| शिथिल नहीं शिखर को इंतजार है मेरा कागज नहीं काफिलों का संसार है मेरा||